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40-50 हजार की टंकी, बेचा साढ़े तीन लाख में, क्या यही नेहा वर्मा परिवार के विकास का सच?

40-50 हजार की टंकी, बेचा साढ़े तीन लाख में, क्या यही नेहा वर्मा परिवार के विकास का सच?

-आधे से अधिक दर्जन की दुकानों का रेट 40 से 50 हजार, जहां पर ठेकेदार टंकी बनवा रहा, उका रेट 50 हजार

-आखिर किसके स्टीमेट आफ रेट क्या, किसके सिड्यूल पर दुकान की कीमत एक लाख 70 हजार रखी गई

-जो रेट ठेकेदार ने चाहा, उसे पालिका वालों ने अप्रूब्ड कर दिया, बाजार दर से तीन गुना अघिक दर को इस लिए अप्रूब्ड किया गया, ताकि अधिक से अधिक बखरा मिल सके

-जानबूझकर पीपीपी माडल का इस्तेमाल किया जाता है, ताकि ठेकेदार के कंधें पर रखकर बंदूक चालाया जा सके

-चूंकि पीपीपी माडल में पैसा ठेकेदार का लगता है, इस लिए वह मनमानी करता, जिसे जिस रेट में चाहा उसे दुकान दिया, आरक्षण तक का पालन नहीं होता

-अगर आवेदन, पंजीकरण, आंवटन और पैसा आनलाइन के जरिए होता तो मोटी कमाई नहीं होती, तब ठेकेदार साढ़े तीन लाख नहीं लेता और ना रसीद ही देता

-जीआईसी के सामने यह कहकर नाला पर 50 लाख से अधिक को ढ़क्कन लगाया, ताकि यहां पर पार्किगं की व्यवस्था हो सक, बाद में पता चला कि यहां पर टंकी रखने की योजना

-यहां पर पार्किगं की व्यवस्था तत्कालीन चेयरमैन अषोक कुमार गुप्त के कार्यकाल में बनी थी

-टंकी स्कैम के मामले में भले ही ठेकेदार और जिस परिवार की योजना रही, उसे तो बहुत कुछ मिल जाएगा, लेकिन सबसे बड़ा नुकसान पहली बार एसडीएम/ईओ प्रभारी बनी सुनिष्ठा सिंह का होगा, पालिका वाले निजी लाभ के इनकी छवि खराब कर देगें

बस्ती। करोड़ों की टंकी की दुकान के मामले में पालिका प्रशासन सवालों के घेरे में फंसता ही ही जा रहा है। जिस तरह 40-50 हजार लागत की टंकी को एक लाख 70 हजार की लागत बताकर साढ़े तीन लाख में बेचा जा रहा हैं, उसे लेकर खूब चर्चा हो रही है, और कहा जा रहा हैं, कि क्या यही नेहा वर्मा के परिवार के विकास का सच है? हर कोई कह रहा है, कि इस तरह की टंकी बाजार में 40 से 50 हजार में बन जाएगी, तो फिर इसका रेट एक लाख 70 हजार क्यों अप्रूब्ड किया गया? और किसकी इजाजत से ठेकेदार साढ़े तीन लाख में बेच रहें हैं? और क्यों नहीं रसीद दे रहें है? यह कुछ ऐसे सवाल हैं, जिसे पालिका के लोग पालिका के जिम्मेदारों से मांग रहे है। सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा हैं, कि आखिर कौन से बाजार का रेट लिया गया, क्यों कि अगर पीडब्लूडी के सिड्यूल रेट भी लिया जाता है, तो भी उसकी लागत एक लाख 70 हजार नहीं आती, ऐसा लगता हैं, कि आंख बंद करके रेट अप्रूब्ड किया गया, क्यों कि अगर पालिका के किसी कर्मी को भी इस तरह की टंकी बनाने की आवष्यकता पड़ेगी, तो उन्हें भी 40 से 50 हजार खर्च करना पड़ेगा। कहा भी जाता हैं, अगर इस तरह के फैसले कार्यालय में ना लेकर कहीं और लिए जाएगें, तो इस तरह के सवाल उठेगें ही।

जिस तरह से अवैध रुप से टंकी रखवाकर उसे बेची जा रही हैं, उसे लेकर भी पालिका से जबाव मांगा जा रहा हैं। इसकी जानकारी आरटीआई के तहत निरंतर पालिका के भ्रष्टाचार को लेकर आवाज उठाने वाले भानु प्रकाश चर्तुेवेदी ने जनसूचना अधिकारी/एडीएम से मांगा है। इसका क्या जबाव दिया जाए, अभी इसका मंथन एलबीसी कार्यालय में चल रहा है। पालिका वाले भले ही चाहें जितना यह कहें कि पीपीपी माडल में टेंडर निकालने की व्यवस्था नहीं हैं, नियम तो कहता है, कि आनलाइन टेंडर निकाला जाए, आनलाइन आवेदन मांगा जाए, आनलाइन एलाटमेंट किया जाए और आनलाइन ही दुकान की लागत को जमा किया जाए, अगर पालिका प्रशासन ने आनालाइन की प्रक्रिया अपनाई होती तो इतने सवाल ना खड़े होते। मान लीजिए कि आनलाइन टेंडर की व्यवस्था नहीं हैं, तो भी पालिका को आनलाइन प्रकिया अपनानी चाहिए थी, ताकि दुकानदारों को कम कीमत पर दुकान मिल सके। दुकान आवंटन में आरक्षण प्रक्रिया को भी दरकिनार करने की बाते सामने आ रही है। जब-जब पालिका ने पीपीपी माडल पर दुकान बनवाया, तब-तब उसपर आरोप लगा। इससे पहले पालिका के चहेते ठेकेदार आस मोहम्मद को हनुमानगढ़ी के भीतर सात दुकानों को पीपीपी माडल पर ठेका दिया। जानकर हैरानी होगी, कि इन्होंने सात में पांच अपने चहेतों को तीन चार गुना अधिक रेट पर दुकान दे दिया। अब आप समझ गए होगें कि पालिका क्यों बार-बार पीपीपी माडल पर दुकान बनाने की योजना बनाती है। कहने का मतलब ठेकेदारों के हाथों में सबकुछ इस लिए सौंप दिया जाता है, ताकि अधिक से अधिक बखरा मिल सके। कहने को तो पालिका इसे आय बढ़ाना बताती हैं, लेकिन असलियत यही हैं, कि आय बढ़ाने के नाम पर खूब बड़ा खुल होता है। चूंकि इस योजना में लाभ ही लाभ सबकों हैं, और रिस्क जीरो, इस लिए पीपीपी माडल हर किसी चेयरमैन/चेयरपर्सन का चहेता बनता जा रहा है। पीपीपी माडल में पालिका जिसे चाहे जिस भी रेट में ठेका दे सकता है। अधिकतर इस तरह का ठेका सबको नहीं मिलता, उन्हीं लोगों को मिलता जो चहेते होते हैं, और अधिक से अधिक बखरा देते है। जेम पोर्टल की तरह पीपीपी माडल को भी लोगों ने बड़ी कमाई का जरिया बना लिया है। वैसे पालिका ने गुपचुप तरीके से जीआईसी के सामने टंकी रखने की व्यवस्था बना ली थी, और इसके लिए पार्किगं का सहारा लिया गया। 50 लाख से अधिक की लागत का नाला के उपर ढक्क्न रखवा दिया गया, ताकि उसी के उपर टंकी रखी जा सके। जिसका सच आज सामने आ रहा है। तत्कालीन चेयरमैन अशोक कुमार गुप्त ने ही सबसे पहले आवागमन की बढ़ती भीढ़ को देखते हुए जीआईसी के सामने पाकिंग की व्यवस्था करने की योजना बनाई थी, अब उनकी योजना को लोगों ने कमाई का जरिया बना लिया। इस मामले में अगर सबसे अधिक किसी का नुकसान हो सकता हैं, वह हैं, प्रभारी ईओ/एसडीएम सुनिष्ठा सिंह का है। पालिका वालों की चालाकी का पता इन्हें तब चलेगा जब यह यहां से चली जाएगी, हो सकता हैं, जांच की आंच इन तक भी पहुंच जाए। वैसे मैडम को यह बताया जा चुका हैं, कि अगर पालिका वालों से सावधान नहीं रही तो यह लोग आप को भी फंसा देगें। पालिका वाले इसी तरह का प्रभारी चाहते हैं, जिसे देहाती भाषा में बकलोल कहा जाता है। कहा जाता हैं, कि जब पालिका कार्यालय कहीं और से संचालित होगा तो सवाल तो सब पर उठेगें।

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