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मिश्राजी और दूबेजी की जगह आलीशान आवास नहीं जेल!
-विनियमतीकरण के नाम पर मिश्राजी और दूबेजी ने पूरे मंडल को ठग लिया, मोटा लिफाफा के चलते दोनों ने इतना माल कमाया कि रखते को जगह नहीं
-एक-एक विनियमतीकरण के नाम पर 20 से 25 लाख तक लिया, अगर नहीं लिया तो कैसे 33 साल बाद विनियमतीकरण कर दिया
-इसी तरह मिश्राजी और दूबेजी ने मिलकर आदर्श इंटर कालेज सल्टौआ में एक पद पर दो-दो शिक्ष्कों को छह साल तक देते रहें वेतन
-धमेंद्र पांडेय का विनियमतीकरण करने के लिए इन दोनों ने मिलकर दस साल बाद पुराने प्रस्ताव को ही बदलवा दिया, जबकि नई कार्यकारिणी के प्रस्ताव को वही कार्यकारिणी अगले में बदल सकती
-सवाल क्यों एक पद पर दो शिक्षकों को वेतन देते रहे, क्यों धमेंद्र पांडेय का अनियमित रुप से विनियमतीकरण हुआ, क्यों किशोरी सिंह के सेवा निवृत्ति के बाद वीरेंद्र उपाध्याय को बलरामपुर से सल्टौआ लाया गया, क्यों दस साल बाद पुराने प्रस्ताव को बदला गया, अगर प्रस्ताव को नहीं बदला जाता तो वीरेंद्र उपाध्याय को वापस बलरामपुर जाना पड़ता? क्यों बीरेंद्र उपाध्याय को नियम विरुद्व पदोन्नति दी गई
-प्रस्ताव बदलने और विनियमतीकरण का गंदा खेल तत्कालीन जेडीई डा. ओमप्रकाश मिश्र और कनिष्ठ लिपिक आलोक कुमार दूबे के द्वारा मोटा लिफाफा लेकर खेला गया
बस्ती। अगर मंडलीय स्तर का माध्यमिक शिक्षा अधिकारी पैसे के लिए कुर्सी और अपने ईमान को बेचता हो, और उनका साथ आलोक कुमार दूबे जैसे भ्रष्ट कनिष्ठ लिपिक देते हैं, तो फिर जेडीई कार्यालय को कौन भ्रष्टाचार से मुक्त कराएगा? मंडल में कैसे योगीजी के जीरो टालरेंस नीति कामयाब होगी। जिस शिक्षा के मंदिर में घूस लेना और देना दोनों को पाप माना जाता हो, अगर उसी शिक्षा के मंदिर में अधिकारी और बाबू भ्रष्टाचार की नदी बहा रहे हो, तो ऐसे अधिकारी और बाबू को त्वरित बर्खास्त करके उनके खिलाफ मुकदमा सरकार को दर्जकरवा कर उन्हें जेल भेज देने की मांग उठ रही है। क्यों कि ऐसे लोगों की जगह आलीशान भवन नहीं बल्कि जेल है? अन्य विभागों में अधिक से अधिक 50 हजार से लेकर एक लाख का घूस चलता है, लेकिन जेडीई कार्यालय में एक-एक काम के लिए 15-20 लाख का घूस लिया जाता है। दिक्कत यह है, कि घूस देने वाला खुद गलत होता है, इस लिए वह 15-20 लाख दे देगा, बावजूद वह उफ तक नहीं करेता, क्यों कि उसे मालूम होता है, कि अगर उसने 15-20 लाख दिया, तो उसका भविष्य सुरक्षित हो जाएगा, परिवार को पेंशन मिलेगा और वह स्थाई अध्यापक कहलाएगा। रही बात नेताओं की तो उन्हें भी जेडीई और बाबू से नियमित/अनियमित काम कराना रहता है। इस लिए नेता भी भ्रष्ट अधिकारी और बाबू के खिलाफ आवाज नहीं उठातें, अगर उठाते तो छह साल से अनियमित रुप से आलोक कुमार दूबे मलाई न काटते होते। जिस भी विभाग का संगठन और उसके नेता कमजोर होते हैं, उन विभागों का हाल जेडीई कार्यालय जैसा होता है। शिक्षकों और कर्मचारियों के नाम पर तो नेतागिरी तो खूब करते हैं, लेकिन जिन कर्मचारियों के बदौलत नेतागिरी करते हैं, उन्हीं के हक की लड़ाई तक नहीं लड़ते। लड़ते तो आज जेडीई कार्यालय में दूबेजी के स्थान पर कोई वरिष्ठ लिपिक मलाई काट रहा होता। सवाल यह भी उठ रहा है, कि जिनका हक मारा जा जा रहा है, आखिर वे लोग क्यों खामोश हैं? कम से कम उन्हें तो अपने हक के लिए आवाज तो उठानी ही चाहिए? सवाल यह भी उठ रहा है, कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आवाज उठाने वाले की ही कोर न दबी हो। बिंडबना यह है, जितने भी विनियमतीकरण में लेन-देन हुए हैं, उनमें शायद ही कोई नियम से हुआ होगा, अगर नियम से हुआ होता तो मार्डन उच्चतर माध्यमिक विधालय हल्लौर जनपद सिद्धार्थनगर के तदर्थ शिक्षक सैयद इंतजार हुसैन रिजवी का 33 साल बाद विनियमतीकरण मिश्राजी और दूबेजी मिलकर न करतें।
जेडीई कार्यालय की जो तष्वीर उभर कर सामने आ रही है, उसे देखकर यह कहा जा सकता है, कि विनियमतीकरण के नाम पर मिश्राजी और दूबेजी ने पूरे मंडल को ठग लिया, मोटा लिफाफा ले-लेकर इन दोनों ने इतना माल कमाया कि खर्च करना मुस्किल हो गया। पैसा रखने को जगह नहीं मिल रहा है। जाहिर सी बात हैं, कि जिस बाबू का वेतन अगर 40-50 हजार हो, और अगर उसके पास कुछ ही साल में करोड़ों आ जाए तो वह तो पागल ही हो जाएगा। मिश्राजी के बारे में विभाग के कई जानकार लोग बताते हैं, कि अगर किसी के खिलाफ कोई शिकायत उनके पास कार्रवाई करने के लिए आ जाती थी, तो वह एक बाबू की पहले जिसके खिलाफ शिकायत हुई, उसे फोन करते और कहते कि तुम्हारे खिलाफ शिकायत आई हैं, आकर मिल लो अगर शिकायत सिद्धार्थनगर की है, तो काला नमक चावल की बोरी साथ में लाने को कहते। किसी मंडलीय अधिकारी का स्तर अगर इतना गिर जाएगा तो बाबू का कितना गिरेगा इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। एक-एक विनियमतीकरण के नाम पर 20 से 25 लाख तक लिया गया। तबादला सूची को फारवर्ड करने के नाम पर मोटा लिफाफा लेने का खूब खेल हुआ। मिश्राजी और दूबेजी का आदर्श इंटर कालेज सल्टौआ का नया खेल सामने आया है। अगर इसकी सही तरीके से जांच हो जाए तो न जाने कितने लोग नप जाएगें। मिश्राजी और दूबेजी ने मिलकर आदर्श इंटर कालेज सल्टौआ में एक पद पर दो-दो शिक्षकों को छह साल तक वेतन देने का खुलासा हुआ। तदर्थ शिक्षक धमेंद्र पांडेय का विनियमतीकरण करने के लिए इन दोनों ने मिलकर दस साल बाद पुराने प्रस्ताव को ही बदलवा दिया, जबकि नई कार्यकारिणी के प्रस्ताव को पुरानी वाली कार्यकारिणी ही अगले में बदल सकती है। सवाल उठ रहा है, कि क्यों एक पद पर दो शिक्षकों को वेतन देते रहे, क्यों धमेंद्र पांडेय का अनियमित रुप से विनियमतीकरण किया गया? क्यों श्रीसिंह के स्थान पर वीरेंद्र उपाध्याय को बलरामपुर से सल्टौआ लाया गया? क्यों दस साल बाद पुराने प्रस्ताव को बदला गया, कहा जाता है, कि अगर प्रस्ताव को नहीं बदला जाता तो वीरेंद्र उपाध्याय को वापस बलरामपुर जाना पड़ता? क्यों वीरेंद्र उपाध्याय को नियम विरुद्व पदोन्नति दी गई? वीरेंद्र उपाध्याय को किशोरी सिंह के रिटायर के बाद सल्टौआ लाया गया। सल्टौआ के मामले में अगर जांच हो गई तो जबाव देते हुए नहीं बनेगा, वैसे ही तत्कालीन जेडीई के ईशारे पर दूबेजी ने सारे विनियमतीकरण की पत्रावली को न जाने कहां दफन कर दिया कि आरटीआई के तहत जानकारी नहीं दी जा रही है।
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