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नेताजी सब कुछ तो गवां चुके, अब तो छोड़ दीजिए

नेताजी सब कुछ तो गवां चुके, अब तो छोड़ दीजिए

-सदर ब्लॉक के ग्राम विकास अधिकारी प्रियंका चौधरी के तबादले और वापसी ने खोली हारे हुए नेताजी की पोल

-अधिकारियों ने कहा कि वह लोग नहीं चाहते थे, लेकिन नेताजी के हस्तक्षेप के कारण तबादला वापस लेना

-जिस तरह एक सचिव को वापस सदर ब्लॉक में लाने के लिए जिले के बड़े अधिकारियों पर अनर्गल दबाव बनाया गया, उससे पता चलता है, कि अधिकारी नेताओं के दबाव में काम कर रहें

-दबाव बनाने वाले नेताओं को शायद यह नहीं मालूम कि एक गलत पैरवी से उनकी छवि खराब हो सकती

बस्ती। सदर ब्लॉक में कार्यरत ग्राम विकास अधिकारी प्रियंका चौधरी को सांउघाट न जाना पड़े इसके लिए इन्होंने न जाने कितनों की छवि खराब कर दी, प्रमुखजी से लेकर नेताजी तक को कटघरे में खड़ा कर दिया, डीएम, सीडीओ और डीडीओ को कमजोर कर दिया। सवाल उठ रहा है, कि आखिर एक सचिव के लिए क्यों सारे नियम कानून को तोड़ा गया? और क्यों नियम विरुद्व पैरवी की गई? क्या डीडीओ ने सचिव का तबादला करके कोई गुनाह या गलती किया था? सवाल तो यह भी उठ रहा है, कि आखिर नेताजी को गलत पैरवी करने की क्या आवष्यकता पड़ गई? क्या इसका कारण कहीं उनके प्रिय प्रमुख तो नहीं? बहरहाल, अगर यही पैरवी अच्छे कामों के लिए नेताजी ने की होती तो उनकी चर्चा होती, और यही  वापसी अगर कुछ दिन बाद होती तो उतनी चर्चा नहीं होती और न सवाल ही खड़े होते, जितनी आज हो रही है। जब एक अधिकारी से पूछा गया कि आखिर आप अपने आदेश की रक्षा क्यों नहीं कर पाए? अगर आदेश को वापस ही लेना था तो तबादला ही क्यों किया और जब तबादला कर दिया तो कुछ दिन तक रहने देते, कम से कम उतनी बदनामी तो नहीं होती जो आज हो रही है। अधिकारी की बातों से लग रहा था, कि वह भी खुश नहीं है। जब सीडीओ से पूछा गया तो वह चुप रहना ही बेहतर समझे। सच पूछिए तो वापसी से जिला विकास अधिकारी कार्यालय का कोई भी कर्मी खुश नहीं है। क्यों कि तबादला होने के बाद जो आरोप सचिव के द्वारा लगाए गए, उससे कर्मचारी खुश नहीं थे।

इस वापसी की कार्रवाई से एक बात स्पष्ट हो गया कि आज भी अधिकारी ऐसे नेताओं के दबाव में काम कर रहे हैं, जो हारे हुएं है। एक बार फिर यहां पर विधायक दूधराम का नाम आ रहा हैं, इन्हें इस लिए बार-बार बेचारा विधायक कहा जा रहा है, क्यों कि यह एक सचिव का तबादला नहीं करवा पाए, हारा हुआ नेता अपने मकसद में कामयाब हो गया, लेकिन जीता हुआ नेता हारे हुए नेता के सामने असफल रहे। जीते हुए विधायक की बात क्यों नहीं सुनी गई और हारे हुए नेताजी की बात क्यों सुन ली गई? यह राजनैतिक क्षेत्र में चर्चा का विषय बना हुआ है। कोई भी नेता या अधिकारी यह न समझे कि वह जो कर रहे हैं, उसकी जानकारी मीडिया को नहीं होगी। मीडिया से वैसे भी कोई बात छिपी नहीं रह सकती। आज भी एक आम नागरिक, नेताओं और अधिकारियों से अधिक मीडिया पर भरोसा करता है। हालांकि कुछ मीडिया के चलते भरोसा कम होता जा रहा है, लेकिन भरोसा अभी पूरी तरह टूटा नहीं है। यह भी सही है, कि जिस दिन मीडिया अपना काम ईमानदारी से करने लगे तो कोई भी नेता किसी की गलत पैरवी करने से बचेगा। अब जरा इस बात का अंदाजा लगाइए कि जिस सचिव का तबादला वापस हुआ वह सचिव उस अधिकारी और कार्यालय के कर्मी को क्या समझेगी? जिसने तबादला किया। अधिकारियों को चिढ़ाने वाली जैसी बात होगी। बीडीओ को भी अब इस सचिव से डरने की आवष्यकता पड़ सकती है।

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